आकांक्षाएँ

आकांक्षा का उद्गम स्थल मनुष्य की आत्मा होती है। आकांक्षाएँ हमें ज़िन्दगी के हर अच्छे और बुरे पहलू से अवगत कराती हैं । 


प्रत्येक मनुष्य के जीवन में विस्तृत आकांक्षाएँ होती हैं जो मनुष्य को उसके लक्ष्य की ओर बढ़ा कर उसके लिए एक कर्मभूमि का निर्माण करती हैं।आकांक्षा एक ऐसी महत्वपूर्ण आवश्यकता है जो व्यक्ति को उसकी मानसिक सीमाओं की बेड़ियों को तोड़ कर आगे बढ़ने की प्रेरणा देती हैं। 


हर व्यक्ति को उसके लक्ष्य की प्राप्ति सतत एवं दृढ़ निश्चित प्रयासों द्वारा होती है। तथा व्यक्ति जिस पथ का अनुसरण करता है वही उसकी कर्मभूमि की रचना का आधार होता है। सभी को अपने लक्ष्य के मार्ग में आने वाली प्रारंभिक कठिनाइयों का सामना स्वयं करना पड़ता है, और वही कठिनाइयाँ उसे उसके लक्ष्य के निकट पहुँचाती हैं। इसका  अर्थ यह है कि कठिनाइयाँ मनुष्य के लिए एक दर्शनशास्त्र हैं, जो उसे लक्ष्य की ओर अग्रसर कर लक्ष्य पूर्ण करने में सहायता करती हैं।


'आकांक्षा' और 'महत्वाकांक्षा'


'आकांक्षा' और 'महत्वाकांक्षा' दोनों ही शब्दों का अर्थ समान प्रतीत होता है, परन्तु दोनों ही शब्द एक दूसरे के विपरीत हैं। आकांक्षा हमे परोपकार करने  की प्रेरणा देती है। वही महत्वाकांक्षा का उदय हमरे भौतिकवादी मन में होता है। मन में सकारात्मक के साथ-साथ नकारात्मक विचारों का भी उद्गम होता है। इसलिए इसमें स्वहित प्रधान  होता है । जिन इच्छाओं में अपना महत्व बढाने एवं रुतबा दिखाने की छमता होती है, वह महत्वाकांक्षाएँ हैं। महत्वाकांक्षा एक ऐसी गतिमान ऊर्जा है जिसे पूर्ण करने हेतु व्यक्ति हर मुमकिन प्रयास करता है। या तो उसे उसकी व्यापकता एवं नकारात्मकता का आभास  ही नहीं होता, या अत्यधिक विलम्भ हो जाने के बाद आभास होता है। मनुष्य यह भूल जाता है कि यदि वह अपने लक्ष्य को इच्छाओं की सीमाओं से आज़ाद नहीं करेगा तो वह केवल इच्छाएं बनकर रह जाएँगी ।



ज्ञान के साथ ही अज्ञानता का भी अस्तित्व है। जहाँ प्रेम है वहीं घृणा भी है। इसी प्रकार आकांक्षाएँ एवं महत्वाकांक्षाएँ दो विरोधाभासी मानसिक ऊर्जाएं हैं। वेदों के काल में मनुष्य हर स्थिति में सकारात्मक पहलुओं को महत्व देते हुये कार्य करते थे, अतः आकांक्षा का प्रभाव अधिक था। परन्तु समय के साथ आकांक्षा का अस्तित्व घटता  गया और महत्वाकांक्षा प्रबल होती गई।


किसी भी लक्ष्य अथवा जीवन में मनोवांक्षित फल की कामना रखने वाले व्यक्ति को परिश्रम एवं तपस्या का मार्ग ही उसके निर्धारित गंतव्य तक पहुँचाता है। जो एक निष्चित अनुपात में विभाजित होता है। हम अपने जीवन से अपेक्षा रखते हैं तो उसके प्रति हमें अपना दायित्व भी निभाना होता है। मुफ्त में, या बिना परिश्रम प्राप्त होने वाली वस्तुएँ दीर्घ अवधि तक लाभान्वित फल कभी नहीं दे सकती हैं। संक्षिप्त रूप  से महत्वाकांक्षाएँ प्राप्त करना मुश्किल ही नहीं असंभव है। वे जितनी बड़ी होंगी उन्हे हासिल करना उतना ही कठिन होगा ।


जब तक मनुष्य इस संसार में जीवित है उसकी इच्छाएँ एवं आकांक्षाएँ कभी समाप्त नही होतीं और वही हमें ज़िन्दगी के हर अच्छे और बुरे पहलू से अवगत कराती हैं एवं जीवन दर्शन प्रदान करती हैं।